व्यंग्य : चुनावी गणतंत्र
तिहत्तरवें गणतंत्र-दिवस की झांकी बने चुनाव।
राजनीति की उठा-पटक में नेता बिकें बिन भाव।।
जिस झण्डे की छाँव में जीवन बीता गुण गाते-गाते।
क्षण में दिया लपेट उसी झण्डे को दल से जाते-जाते।।
बदले सभी विचार, गीत सब पड़े पुराने ऐसा मौसम आया।
बने रहे सांसद और विधायक, मंत्री-पद भी ध्यान न आया।।
कथनी-करनी हो गई पुरानी, नये लोग मैदान में आये।
कल तक गूँज रही थी वाणी, जीत-हार ने खेल रचाये।।
चुनाव-पार्टी के सभी धुरन्धर अदला-बदली से ऐसे बदले।
जीतेगा इस बार कौन? बस इसी विधा में ऐसे उलझे।।
आया-गया, गया फिर आया, नीति-रीति पड़ गई पुरानी।
राजनीति का खेल निराला, कल और आज की यही कहानी।।
पुत्री-पुत्र-वधु या बेटे भी तो बनने चाहियें विधायक इस बार।
हम तो हो चले हैं बूढ़े खूसट, खानदान की साख नहीें टूटे इस बार।।
बहुमत तक कैसे पहुंचे बस, यही आंकड़ा लक्ष्य बना सब ही का।
सत्ता की कुर्सी मिल जाये बस, यही ध्येय बन गया सभी का।।
– पं रामेश्वर दत्त शर्मा “राम”